पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शृङ्गारनिर्णय। उसमा यथा सवैया। बावरी भागनि तें पति पावत जो मति मोहै अनेक तिया को ! भोर को आवनि कुंज बिहारी को मेरो तौ दासजू ज्यारी जिया की। ते मो सिख ले तू अलौ दै गजी तजि सौखनि छौछौ किया को। ग्रामपियारे ते मान कर तो कसाइनि कूर कठोर हिया की ॥२०५॥ मध्यमा यथा सवैया। मारी निसा कठिनाई धरे रहै पाहन सो मन जात विचारो । दास जू देखते धाम गो. पाल को पाला सो होत घरी धुरि चारो ॥ नेह की बातें कहो तुम एतौ पै मो मन होत न ने कहू न्यारो। पूस को भानहू वा कृसान सो मूढ़ अज्ञान सो मान तिहारो ॥ २० ॥ अधमा यथा कबित्त । माधो अपराधो तिल आधो ना बिचारो शुद्ध साधही ते राधे हठ आराधन ठानती । दास यों अली के बैन ठोकै करि मानो ज्ञान ढहै दुख