पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७१

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शृङ्गारनिर्णय । जौ के यह नौके हम जानती ॥ वाको सिद पाई बहै ध्यान धन ठहराई और को सिखाई कळू कान्छन न आन तौ । मान करि मानिनी मनाए मानै बावरी न कोऊ गुरु साने मान मानती ॥२०॥ इति आलस्बन बिभाव। erox अथ होपन बिभाव सखीजन दर्शन दोहा तिय पिथ को हितकारिनी सखो कहें कविरावा उत्तम अक मध्यम अधम प्रगट टूतिका भाव । साधारन सखी यथा कबित्त । छधि ना बरनि जिन सुरति बढ़ाई लई ल. गनि उपाय घात धातन मिलाई है। मान में मनायो पौर बिरह बुझायो पद देस में बसौठो करि चौठौ पहुंचादू है ॥ दास जू संजोग में सुबैनन मुनाय भैन प्रौति न बढ़ाय रस रौति न बढ़ाई है। चन्द्रावलि राधा जू को ललिता गो- पान ज की सखियां सोहाई कैंधी भाग को भलाई है ॥ २०६॥