पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७२

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शृङ्गारनिर्णय। माथिका हित सखी। तेरी खोभिवे की रुख रोम मनमोहन को यातें वहै साज साजि साजि नित पावते । आ- हो में कुंकुंम की छाप नखछत गात अंजन अधर माल जावक लगावले ॥ ज्यों ज्यों तू यानी अनखानी दरसाचे त्यो त्यों स्याम कृत आपने लहे को सुख पावते। तिनही विसावे तू यों सुनावै तुम बोंही मनभावते इमारे मन भावते ॥ २१ ॥ जायक हित सखी। केसरि के केसर को उर में नखच्छत कै कर लै कपोलन में मौक हपटाई है । हारावलौ तोरि छोरि कचनि बिथोरि खोरि मोहू गति भोरि इत भोरे उठि आई है। पौको बिन प्रेम कोज दास इहि नेम परपंच करि पंच में सो- हागिन कहाई है। हांती करि हाती मोहि ऐसौ ना सोहाती भेष कन्द है तकत यह कैसी चतुराई है ॥ २११॥