पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७८

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शृङ्गारनिर्याय । मुकुतन संग ताके दाइ दहिये। दास मन- भावतो न भावतो चलन तेरी अधर अमो के अबलोके मोहि रहिये । है के सम्मुरूपी है उरज ये कठोर ये कठोरताई एती करें कालो जादू कहिये ॥ २२६॥ शिक्षा यथा-सवैया। वाही घरी तें न जान रहै न रहै सम्खि- यान को सौख सिखाई। दास न लाज को साज रहै न रहै सजनी गृहकाज की घाई यां सिख साध निबारे रहो तब हौं लो भटू सब भाति भलाई। देखत कान्है न चेत रहै रोन चित्त रहै न रहै चतुराई ॥ २२७ ॥ सुत्ति यथा कबित्त। राधे तो बदन सम होतो हिमकर तो अ. भर प्रति मासन बिगारते क्यों रहते ?। क्योंहूं कर पद सरि पावते जो इन्दीवर सर में गड़े तो दिन टारते क्यों रहते? ॥ दास दुति दन्तन की देत्यो दई दारिमै तो पचि पचि उदर बिदारते