पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७९

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शृङ्गारनिर्याय। क्यों रहते ? । एरो तेरे कुचसरि होत करिकुम्भ तो वे उन पर लै लै छार डारते क्यों रहते ? ॥ विनय यथा-अधया। जात भए गृहलोग कहूं न परोसह को कछु आहट पैथे। दीनदयाल दया करि के बहु योसनि को तनताप बुझये । दासं ये चन्दन चाँदनी चौसर भोसर बीते न औसर पैये। गो- इन छाड़ि कछू मिसके मनमोहन आज यहां दहि जैये ।। २२६ सुनि चन्दमुखी रहि रैनि लख्यो मै अनन्द- समूहसन्यो सपनो । दृगमीचनि खेलत तो सँग दास दयो बिधि फेरि सु बालपनो लगी दूढ़म चम्मलता लतिका चलि ता छन मोहि बन्यो छपनो । जनु पाझे नही से छिपाय रही तू ओढ़ाय के अंचना हो अपनो ॥ २३० ॥ कविता गति नरनारिन को पछी देहधारिन की