पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/८०

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शृङ्गारनिर्णय । सवयः। सन के अहारिन को एक बार बंधई। दोनो विकलाई सुधि बुधि बिसराई ऐमौ निस्दै क- साई तोसो करि न सकै दई । बिधि के सँवारे कान्ह कार औ कपटवारे दास जू न इनकी अनौति आज की नई । सुर को प्रकासिनि अ- धर-सेजवासिनि सु बंस को है बसौ तू कुपं. थिन कहा भई ॥ २३१॥ मिर शनिवेदन यथा- दास जू आलस लालसा चासे उसासन पास तजै दिन रातै चिन्ता कठोरता दीनता मोह उदीनता संग कियो कर बातै ॥ आधि उपाधि असाधिता व्याधि नवाधिक कैसह के सकै हाते। तेरे मिलाप बिना ब्रजनाथ इन्हें अपनाये रहै तियनाते ॥३२॥ अधोपन विभाव यथा - बाग के बगर अनुरागरलौ देखतिही सु. खमा सलोनी सुमनावस्ति अछेह को। हार लगि जाती फेरि ईठि ठहराती बोले औरनि रिसाती कवित्त।