पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/८१

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शृङ्गारनिगाय। भरति उसासु ॐ माती आसव अदेह को ॥ दास अब नौके जभि रौ सु बाँसुरी को धुनि प्रति पा- सुरी में देह कौ । गाँसौ गासी नेह को मिसानी भरमेह की रही न सुधि तेह को न देइ को न गैह की॥ २३३॥ अनुभाव, लक्षण दोहा। सु अनुभाव जिहि पाये मन को प्रेम प्रभाव । याही में बरनै सुकवि आठो सात्विक भाव यथा अवैया। जी बँधिही बँधि जात है ज्यों ज्यों सुनीवो सनीन को बाधति छोरति । दाम कटौले है गात क. बिहँसौं ही मोही लसै हग लो रति । भौंह मरोरति ना सकोरति चौर निचोरति श्री चित चोरति । प्यारो गुलाब के नौर में बोस्यो प्रिया लपटे रस भीर में बोरति ॥२३५॥ साविक भाव-दोहा।। स्तम्भ खेद रोमांच स्वरभङ्ग कम्प वैवा अश्रु प्रलाये स्वात्विको भाव के उदाहर्ण