पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शृङ्गार निय। शाति उग्र बानि सगिलानि हरखाति है। 3. नौदति अलसाति सोक्त मधौर चौंकि चाहि चित श्रमितसगर्व अनखाति है ना दास पिच मेह छिन छिन भाव बदलति स्यामा सविराग दीन मति कै मखाति है। जल्पति नकाति कहरत कठिनाति माति मोहति मरति बिललाति बि- लखाति है ॥ २३६ ॥ धाई भाव लक्षन दोहा। थाई भाव सिंगार को प्रोति कलावै मित्त । तिहि बिन होत न एक रससिंगार कविता थाई भाव विभाव अनुभाव संचारी भाव पै? एक कवित्त मैं सो पूरन रसराव ॥ २४१ ॥ यथा कविता आज चन्द्रभागा चंयनतिका विसावा को पठाई हरि बाग ते कलामैं करि कोटि कोटि सांभ समें बौधिन मैं ठानी दृगमोचनी भोराई तिन राधे को जुगुति के निखोटि खोटि॥ ल- लिता के लोचन मिचाय चन्द्रभागा सो दुरायबे