पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/८४

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शृङ्गारनिर्णय को ल्याई दै सहाई दास पोटि पोटि । जानि जानि धरी तिय बानी रस भरी सब पालो तिहि धरी हँसि हँसि घरों लोटि लोटि २४२॥ शृंगार हेत का दोहा। कहत संजोग बियोग है त सिँगारहि लोग । संगम सुखद संजोग है बिछुरे दुखद बियोग । संयोग भृगार यथा कशित खान जानु बाहुबाहु नुख सुख भाल भाल सामुहें भिरत भट मानो थर थर है। गाड़े ठाढ़े उरज ढलैत नख धाय लेत ढाहै ढिग करन सं. जोगी बीर बा है ॥ टूटै नग छूटै बान सिंत्रित बिरह बोले मसर न मारु वा बाजत प्रबरू है। राधे हरि क्रौड़त अनेकनि समरकला मानो मढ़ी सोभा श्री सिँगार सो समरू है ॥ २४ ॥ सुरतात यथा वित्त। उठो परजंक ते सर्यकबदनौ को लखि अंक भरिवे को फेरि लाल मन ललक । दास अंमि- राति जमुहाति तकि अकि जाति होने पट अं