पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/८९

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शृङ्गार परनिर्शय। तें चोट बिरी करी पौय के बार सुधारत बैठौ जित रही। चञ्चल चारु हगञ्चल के तव चन्द- मुखी चहुँ ओर चितै रही ॥ २५८ ॥ बिइितहाव लक्षण दोहा। हिलिमिलिसकै न लाजबसजियेभरीअभिलाख । ललचावै मन दै मनहिं विहितहाव ज्यों दाख। यथा कवित्त । प्यारे के लिमन्दिर तें करत इसारे उत जा- दूबे को प्यारोह के मन अभिलायो है। दास गुरु जन पास बासर प्रकास तेन धीरज न जात क्यौंहूं लाज डर नाख्यो है। नैन ललचौंहैं पै क्यों५ निरखत बनै ओठ फर को हैं पै न जात कछु भाख्यो है। काजन के ब्याजबाही देहरी के सा- मुहें है सामुहें के भौन आवागौन करि राख्यो न बिछित्तिहाद लक्षण- दोहा। बन भूखन के थीहरी भूखन छवि सरसाय । कहत हाव बिछित्ति हैं जो प्रबीन कविराय॥