पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/९५

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६४ शृङ्गारनिर्णय । कहा गुन ओंठ में अञ्जन भाल में जावक लोक लगाये । कान्ह सुभावही पूर्शत हों में कहा फल नैननि पान खवाये ॥ २७७॥ हेलाहाव लक्षण -दोहा। हावन में जहँ होत है नियटै प्रेम प्रकास तासों हेला कहत हैं सकल सुकविजन दास ॥ एक हाव में मिलत जहँ हाव अनेकनि फेरि । समुभि हिंगे मुमति यह लोला हावै हेरि ॥ यथा कविता पिथ को पहिराव प्यारी पहिरे सुभाव मिय भाव है गई है मुधि आपनी न भावतो । दास हरि आङ्क त्योंही सामुहैं निहारे खरे राति मन- भावती को देखि मनभावती आमनोडू याले भुकुर लै उनमानि के गोपालै आपनीय प्रति. बिम्ब ठहरावती। ल्याउ ल्याउ ज्याउ ज्याउ कूप रस प्याउ घ्याउ राधे राधे कान्हही लो ललित सुनावती ।। २८॥ इति संयोग भृङ्गार