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ईश्वर के विषय में मानवी बुद्धि की भी ठीक यही दशा है ! हम पूरा २ वर्णन कर लें तौ वह अनंत कैसे ? और यदि निरा अनंत मान के हम अपने मन वचन को उन की ओर से फेर ले तो हम आस्तिक कैसे ? सिद्धांत यह कि हमारी बुद्धि कहां तक है वहां तक उनकी स्तुति प्रार्थना ध्यान उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शांति लाभ करेंगे ! उन के साथ जिस प्रकार से जितना संबंध रख सके उतना ही हमारे मन, बुद्धि, आत्मा, संसार, परमार्थ के लिए मंगल है ! जो लोग केवल जगत के दिखाने तथा सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं वे व्यर्थ समय में बितावै जितनी देर पूजा पाठ करते हैं उतनी देर कमाने खाने पढ़ने गुनने में रहें तो उत्तम है ! और जो केवल शास्त्रायी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को पिता बना के माता को कलंक लगाते हैं ! माता कहके बिचारे बाप को दोषी ठहराते हैं साकार कल्पना करके व्यापकता और निराकार कह के उसके अस्तित्व का लोप करते हैं ! हमारा यह लेख केवल उन के लिए है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं, और जगदीश्वर के साथ जीवित संबंध रख के हृदय में आनंद पाते हैं ; तथा आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते भी हैं ।

प्रियवर उसकी सब बातें अनंत हैं अतः मूर्तियां भी अनंत प्रकार की बन सकती हैं पर हमारी बुद्धि अनंत नहीं है इस से कुछ रीति की प्रतिमाओं का वर्णन करते हैं । यह