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भी सब जानते हैं कि अंनत की एक२ प्रति कृति का एक२ अंग भी अनंत भाव अनंत भलाई अनंत सुख से भरा होना चाहिए पर हम अनंत नहीं हैं इस से थोड़ी ही सी बातों पर लेख की अंत करेंगे ।

मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है इस का यह भाव है कि उन से हमारा दृढ़ संबध है ! { दृढ़ पदार्थों की उपमा पाषाण से दी जाती है ) हमारे विश्वास की नीव पत्थर पर है ! हमारा धर्म प्रखर का है ! ऐसा नहीं है कि महज में और का और हो जाय ! बड़ा सुभीता यह भी है कि एक बेर प्रतिमा पधगय दीं कई पीढ़ियों की छुट्टी हुई, चाहे जैसे असावधान पूजक आवैं कुछ हानि नहीं हो सकती ।

धातु विग्रह का यह तात्पर्य है कि हमारा प्रभु दृवण शील अर्थात् दयामय हैं ! जड़ा हमारे हृदय में प्रेमाग्नि धधकी वहीं वुह इस पर पिघल उठे। यदि हम सच्चे तदीय हैं तो वह हमारी दशा के अनुसार हमारे साथ वर्ताव करें, गे ! यह नहीं कि ईश्वर अपने नियम पालन से काम रखता है कोई मरे चाहै जिए ।

रतनमयी प्रति कृतिका यह अर्थ है कि हमारा ईश्वरीय संबंध अमूल्य है ! जैसे पन्ना पुखराज आदि की मूर्ति बिना एक गृहस्थी भर का धन लगाए हाथ नहीं आती यह बड़े अमीर का साध्य है वैसे ही प्रेम स्वरुप परमात्मा भी हम को तभी मिलेंगे जब हम ज्ञानाज्ञान का सारा अभिमान ग्वोदे ! यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है ।