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मूर्तिपूजन कहते हैं कि इस प्रतिमा को स्वयं ब्रह्म नहीं जानते न यही मानते हैं कि यह उस की यथातथ्य प्रकृति हैं; केवल परम देव की सेवा करने तथा अपना मन लगाने के लिए एक संकेत तथा चिन्ह नियत करलेते हैं यह बात आदि में शैवों के ही घर से निकली है क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है ! और सच भी यही है जो वस्तु बाहरी नेत्रों से देखी नहीं जाती उसकी ठीक २ मूर्त्ति ही क्या ? आनंद की कैसी मूर्ति, दुःख की कैसी मूर्ति, राग रागिनियों की कैसी मूर्ति ? केवल मन: कल्पना द्वारा उस के गुणों का कुछ २ धोतन करने के योग्य कोई संकेत; बस ठीक इसी प्रकार ज्योतिर्लिंग है ! सृष्टिकर्तत्व, अचिंत्यत्व, अप्रतिमत्वादि कई बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं ! ईश्वर कैसा है यह बात पूर्णरूप से कोई नहीं कई सकता ! अर्थात् उस की सभी बातें गोलमाल हैं; बस यही बात मोल मठोल ठीक मूर्ति भी सूचित करती है ! यदि ‘नतस्य प्रतिमास्ति' इस वेद वचन का यही अर्थ है कि ईश्वर के प्रतिमा नहीं है तो इस का ठीका रूप के शिवलिंग ही है क्योंकि जिसमें हस्त यादादि कुछ नहीं हैं उसे प्रतिमा कौन कहेगा ! पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि यदि कुछ अवयव ही नहीं है । तो यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं ही है ! तो हम उत्तर दे सकते हैं कि आंखें हों तो देखो फिर धर्म से कहना कि कुछ है अथवा नहीं है ! तात्पर्य यह है कि कुछ है एवं कुछ नहीं है यह दोनों बातें ईश्वर के विषय में न हां कहीं