पृष्ठ:शैवसर्वस्व.pdf/१९

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देखा जाये तो शायद दो चार हड्डियां निकलेगी जिनपर यह नहीं लिखी कि यह सिकंदर की हड्डी है यह दारा की इत्यादि ) हमारे यहां उक्त विषय में स्मशान का वर्णन होगा ( शिर पीड़ा जिन की नहीं हेरी करत कपाल क्रिया तिन केरी ॥ फूल वोझहु जिन न संभारे । तिन पर बोझ काठ बहु डारे ॥ इत्यादि ) क्योंकि कब्रों की चाल यहां विदेशियों की चलाई है । यूरोप में सुन्दरता वर्णन करेंगे तो अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे और हिंदुस्तान में तास्त्र वर्ण के केश सुन्दर न समझे जांयगे ! ऐसे ही सब बातों में समझ लीजिए तब जान जाइएगा कि ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ानेवाले सदा सब ठौर मनुष्य ही हैं । अतः सब कहीं उसके स्वरूप की कल्पना मनुष्य के स्वरूप के समान की गई है । क्रिस्तानों और मुसलमानों के यहां भी कही २ खुदा के दहिने तथा बाए हाथ का वर्णन है ! वरं व यह खुला हुवा लिखा है कि उसने आदम को अपनी सुरत में बनाया ! पादरी साहब तथा मौलवाँ साहब चाहे जैसी उलट फेर के बाते कहें पर इस का यह भाव कहीं न जायगा कि अगर खुदा की कोई शकल है तो आदम ही की सी शत्व होगी । हो चाहे जैसा पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मानना पड़ेगा जैसों से प्रत्यक्ष में हमारा सबंध है ! हमारे माता पिता भाई बहिन राजा रानी गुरू गुरुपत्नी इत्यादि जिन को हम अपने प्रेम प्रतिष्ठा का आधार मानते हैं उन