पृष्ठ:शैवसर्वस्व.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[ ३३ ]


भौतिक दुःख उन की मुट्ठी में हैं ! फिर उन के भक्त संसार से क्यों न निर्भय रहे ! उस सर्व शक्तिमान के पंजे से छूटेंगे तब हम पर चोट करेंगे ! भला यह कब सम्भव है ? हमारा प्रभु हमारी रक्षा के अर्थ सदा शस्त्र धारण किएँ रहता है फिर हम क्यों डरें । हमारे विश्वनाथ त्रिशूल प्रहारक हैं अतः हमें कोई निष्कारण सतावैगा वुह कहां बच के जायगा ? हमारा या यों कहो कि संसार के शुभचिंतकों का शय पृथिवी स्वर्ग पाताल कहीं न बचेगा ! भगवान का नाम ही त्रिपुरारि है अर्थात् वे लोक्य के असुर प्रकृति वालों का शत्रु हा प्रिय शैव गुण ! यदि तुम में कोई भी आसुरी प्रकृति हो सार्थ के आगे देश की चिंता न हो । देशी भाइयों से द्वेष हो ! आलस्य हो ! दंभ हो ! पर संताप हो ! तो डरो सृष्टि संहारक के त्रिशत से ! और यदि सरलता के साथ उन के चरण और सदाचरण में श्रद्धा है तो समस्त सुल को वे स्वयं प्रहार कर डालेंगे । कभी २ कालचक्र की गति से सच्चे शैय को भी रोग वियोगादि शूल दुख देते हैं पर उसे संसारी लोगों की भांति कष्ट नहीं होती ! क्योंकि निश्चय रहता है कि यह प्रेमपात्र का चोचला मात्र है ! न जाने किस उमंग में आके विशूल दिखला दिया है पर हन पर चाट कदापि न करेंगे ।

दूसरे हाथ में डमरु है पंडित लोग जानते हैं कि व्यांकरणादि कई विद्याओ के अइउऋलुकादि मूल सूत्र इसी डमरू के शब्द से निकले हैं वह इस बात का इशारा है कि