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सब विद्या उन की मूठी में हैं ! पर हमारी समझ में एक बात आती है कि यदि वे केवल त्रिशूलधारी ही होते तो हम निर्वलो को केवल उन का भय होता इसी लिए एक वाला भी पास रखते हैं जिस में हमें निश्चय रहे है कि निरे न्यायी निरे दुष्ट दलन, निरे युद्ध प्रिय हो नहीं हैं बरंच अपने लोगों के लिए गान रमिक भी है ! मनुष्य की मनोवृत्ति गाने बजाने की ओर आप ही खिंच जाती है फिर भला जिसकी ओर चित्त लगाना हमें परमावश्यक है वुह प्रभु हमारे चित्त को अपनी ओर खीच ने के अर्थ गान प्रिय क्यों न हो ! सैकड़ों बार देखा गया है कि कभी २ किसी करण के बिना भी हमारा मन उग के निकट जा रहता है इस का कारण यही है कि उन का रूप गुण स्वभाव हृदययाही है ! धन्य है उस पुरुष रत्न का जीवन जिस के मन की आखो में सदा उन की छवि बसती है । और अंत: करण के कारण में नित्य प्रेम डमरू की ध्वनि पूरी रहती है ! संसार में जितने सुहावने शब्द सुनाई देते हैं सब उसी डमरू के शब्द है ! क्योंकि सब को उन्हीं के हाथ का सहारा है ।

कोई २ मूर्ति अडांगी होती है अर्थात् एक ही मूर्ति में एक ओर शिव एक ओर पार्वती देवी ऐसी झांकी से यह अकथ्य महिमा बिदित होती है कि वुह अष्ठ प्रहर अपनी प्यारी को बामांक में धारण करने पर भी योगश्वर एवं मदनांतक हैं ! क्या यह सामर्थ्य किसी टूसरे को हो सकती है ? हां जिस पर उन्हीं की विशेष दया हो ! धन्य प्रभो !'