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दूसरे विल्वपत्र चढ़ाने का भाव 'चिदल विगुणाकार' इत्यादि श्लोक ही से प्रगट है अर्थात् सतोगुण रजोगुण तमोगुण जो हमारी आत्मा के अंग है उन की भेंट कर देना ! यहां तक उन से दूर रहना कि उन्हें शिव निर्माल्य बना देना ! जैसी कि भगवान कृष्णचन्द्र कौ आज्ञा है ' निस्वैगुणयो भवार्जुन ' अर्थात् अपना मन उसी पर निछावर कर देना ! बस यही तो धर्म की परा काष्ठा है !

तीसरे मूर्तिं की चढ़ी हुई वस्तु नहीं ली जाती इनका प्रयोजन यह है कि हमारा उनका कुछ व्यवहार तो हुई नहीं कि लौटा लेने के लिए कोई वस्तु देते हों वे तो हमारे मित्र हैं ' ग्रान्नो मित्र: ' और मित्र को कोई वस्तु भेंट करके फेर लेना क्या !

चौथी बात है गाल बजाना जिसका तात्पर्य पुराणों में सबने सुना होगा कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव का भाग न देख के जब सती जी ने योगाग्नि में अपनी देह दाह कर दी तब शिव के गणों ने यज्ञ विध्वस कर डाली और अशिव याजक (दक्ष) का शिर काट के हवन कुंड में स्वाहा कर दिया पीछे से सब देवताओ की रुचि रखने को उस के धड़ में बकरे का शिर लगा के पुनर्जीवन दिया गया और उस ने उसी मुख से स्तुति की इसी के कारण से आज तक गलमंदरी बजाई जाती है इस 'आख्यान में दो उपदेश हैं । एक तो यह कि सती अर्थात् पूजनीया पतिव्रता वही स्त्री हैं जो अपने प्यारे पति की प्रतिष्ठा के आगे सगे बाप तथा