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अपने देह तक की पर्वा न करें ! वही विश्वेश्वर को प्यारी होती हैं ! दूसरे वह कि शिव विमुख होके अपनी दक्षता का अभिमान करनेवाला यज्ञ भी करे तौ भी अनर्थ हो करता है ! वह प्रजा पति ही क्यों न हो पर वास्तव में मृतक है ! पशु है ! वरंच पशु से भी बुरा नर के रूप में बकरा है ! यह तो पुराणोक्त ध्वनि है पर हमारी समझ में यह आता है कि जिन कल्याणकारी हृदय विहारी की महिमा कोई महर्षि भी नहीं गान कर सकते वेद स्वयं नेति २ कहते हैं श्रीपुष्पदंत जी ने जिन की स्तुति में यह परम सत्य वाक्य लिखा है कि--

काजर के घिसि पर्वत को मसि भाजन सर्व समुद्र बनावै । लेखनि दैवतरुन को डारहि कागद भूमिहिं को ठहरावै ॥ या विधि सारद क्येां न प्रताप सदा लिखिने मह वैस वितावै । नाथ! तहु तुम्हारी महिमा कर कैसे हु ने कहु पार न आवै ॥१॥

उन की स्तुति करने का जो क्षुद्र मानव विचार करे वुह गाल बजाने अर्थात् वेपर की उड़ाने के सिवा क्या करता है ? इसी बात की सूचनार्थ स्तुति के दो एकं श्लोक पढ़ के गाल से शब्द किया जाता है कि महाराज ! तुम्हारी स्तुति तो हम का कर सकते हैं यों ही कहौ गाल बजाया करें ! प्रसिद्ध है कि ऐसा करने से भवानी पति बड़े प्रसन्न होते हैं, भला सच्ची बात और युक्ति के साथ कही जायगी तो कौन सहृदय न प्रसन्न होगा ? फिर वे तो सहृदय समाज के आदिदेव ( गणेश जी ) के भी पिता हैं !