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यद्यपि हमारा कोई मत नहीं है क्योंकि हमारे परम बुद्धश्री हरिश्चंद्र ने हमें यह सिखलाया है कि ‘मत का अर्थ हैं नहीं पर जब हम अपने पश्चिमोत्तर देश की ओर देखते हैं तो एक बड़े भारी समूह को शैव ही पाते हैं हमारे ब्राह्मण भाई विशेषतः कान्यकुञ्ज तिस्पर भी षटकुलस्य कदाचित सौ में निन्नानबे इसी ओर हैं इधर रहने वाले गौड़ सारस्वत भी तीन भाग से अधिक शैव ही हैं ! क्षत्रियों में राजपूत सौ में पांच से अधिक दूसरे मत के न होंगे ! खत्री भी फौ सैकड़ा दो ही चार हों तो हों ! वैश्वो में हमारे भोमर दोसरों को भी यही दशा है । हां अग्रवाल थोड़े होंगे । कायस्थ तो सौ में कार सहम में दो चार होंगे जो शिवोपासक न हों ! इस से हमारा यह कहना कदापि झूठ न होगा कि हमारे यहां तीन भाग से अधिक इसी ढर्रें में चल रहे हैं ! वेद में भी यदि कुछ ऋचा विष्णु इत्यादि नामों से स्तवन करती हैं तो बहुत सी ऋचाए हमारे भोला बाबा ही की गीत गाती हैं ! ( नमः शंभवायच मयोभवायच नमः शंकरायच मरुस्करायक नमः शिवायच शिवतरायच ) ऐसा दुसरे नामों से भरा हुवा मंत्र कदाचित कोई ही हो ! इस के अतिरिक्त इस मार्ग में अकृतिमता बहुत है । बड़े कट्टर बना चाहो तो नहा के तीन उंगली भस्म में डुबो के माथे पर रगड़ लिया करो न जी चाहे तो यह भी न सही पूजा भी केवल लोटा भर पानी तक से हो सकती है ! जिस में निरी अकृतिमता, धोतौ, नैती, कंठी, माला, कुछ न देखिए