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व्यथा व कष्ट से श्री विश्वनाथ विश्वंमर के सच्चे प्रेमियो के मनोदिनोदार्थ कुछ शिवमूर्ति और उन की पुजा पर अपना विचार प्रगट करते हैं ।

ईश्वर का नाम शिव है, यह बात वेद से लेके ग्राम्य गीतों तक में प्रसिद्ध है । और मूर्तिपजन हमारे यहां उस कारण से चला आता है जिस का ठीक २ पता भी कोई नहीं लगा सकता । जिस देश मे शिल्य विद्या का प्रचार और जहां लोगो के जी में स्त्रोड एवं सहदयता का उदगार होगा वहां मूर्ति पूजा किसी के हटाए नहीं हट सकती । मुहम्मदीय मत अब तक परद के अशिक्षितों में रहा तभी तक प्रतिमा पूजन से बचा रहा जहां फारस के रमिकों में फैला टझ 'शीया' भन्प्रदाय नियत हो नई ! इसी प्रकार राष्ट्रीय मत अब तक तुर्किस्तान में रहा वहां के प्रेम को यह दशा कि खुद हज़रत ईजा को उन के चुने हुए बारह शिष्यों में से एक शिष्य बह्वदार इस्करोही ने केवल तीस रुपए के लोभ से प्राण ग्राहक शत्रुओ के हाथ सौंप दिया ऐसे देश में मूर्ति पूजा क्या होती जहां साक्षात ही पूजा के लाले पड़े थे । परन्तु कम से मसीहो धर्म को आते देर न हुई कि महात्मा नसीड़ की प्रतिकृति पूजने लगी, रोम्बन केथोलिक मत फैल गया ! जब नए मतों की यह दशा है ते हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पुजा क्यों न हो ? जहाँ प्रेम की उमंग में

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० वाक्य क्षयवामडे के सुमन्धन्यु ष्टिवर्षक इत्यादि ।

+ एंकरे महा देव सेवक आके इत्यादि ।