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श्यामास्वप्न

उपजाता है , नागरिक लोग यहाँ आते ही यमसदन सिधारते हैं. लोग सहे वहे हैं . किसी प्रकार से दिन काट ही लेते हैं. यहाँ से निकट ही मतंगवाटी नाम की घाटी प्रसिद्ध है . इसकी उतरने की परिपाटी ऐसी दुस्तर और अटपटी है कि शाटी आदि बसन बदन पर नहीं रह सकते . यहाँ के वासी लाटी बोलते हैं . इस बन के बाँस की सांटी (सोंटा) प्रसिद्ध है . लोग बड़े कुपाटी-नट नटी से कूद कूद बन में विचरते रहते हैं . सुनते हैं कि यहाँ एक वृद्ध व्याघू बुद्धि का भरा किसी अन्य देश से आया है . यह ऐसा ढीठ है कि ग्राम के पशुओं को दिन द्योसे धर खाता है ."

"तुम्हारा केवल-बस-वही."

“यहाँ से चल श्यामसुंदर मान्यपुर की ओर मुड़े • मेरे लिखे अनु- सार कंचनपुर के पंथ में पाँव भी न धरा . उन्हें अब चटपटी पड़ी और मेरी सूरति की सुरत करते करते मग्न हो जाते . किसी प्रकार से दो दिन और गली में भली भाँति लगाए . पर इसका हेतु बिजली और मेह था , बदली छाई रहती . अकाल के मेघ दुर्दिन के सूचक थे . सुदिन के सूर्य ने अंत में वियोग तम फाड़ दिया हंसमाल में आ पहुँचे , बसंत झलकी आम के मौर लगे जिनपर भौंर के डेरा जमे .धमार को मार होने लगी . सरसौं के खेत फूले-धान पकी–कोइल कुहकने लगी . जिधर देखो उधर उत्सव ही उत्सव था पर इस अवसर पर केवल श्यामसुंदर ने निरुत्सवता की समाधि लगा ली थी .आँख मूंद के मेरा ही ध्यान लगा लेते और यदि कोई बीच में बोलता तो—“श्यामा-श्यामा" कह उठते, उन्हें उनके एक प्राचीन प्रियतम का कवित्त बहुत प्यारा लगता और बार बार उसी को अकेले दुकेले कहते रहते .

आवत वसंत प्राली कंत के मिलाप बिनु

मदन भभूक अंग अंग प्रान फूकेंगी।

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