पृष्ठ:संकलन.djvu/१०७

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अपने ही पैरों पर कुठार चलाना है; क्योंकि जब उपाधियों के लालच से अपनी थैलियों का मुँह खोल देनेवाले धनवान लोग राजनैतिक दलों को दान देना बन्द कर देंगे, तब, आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण, इन दलों का बल बहुत कम हो जायगा और सदा एक दूसरे के जल्दी जल्दी पतन का भय लगा रहेगा। हाँ, प्रत्येक दल अपने अपने अनुयायियों से भी चंदा बटोर कर धन एकत्र कर सकता है; परन्तु यह काम घोर चढ़ा-ऊपरी और परिश्रम का है, और इस तरह बहुत ही थोड़ा रुपया मिल सकता है। जब तक आराम से बैठे बैठे रुपयों की ढेरी मिलती जाय, तब तक परिश्रम करके भी थोड़ा ही रुपया पाना किसे पसन्द हो सकता है ? उपाधि के विषय में प्रजा चूँ तक नहीं कर सकती। किसी को उपाधि मिलने पर वह नाराज़ या खुश चाहे जितना हो ले, पर उसे यह बात जानने का कोई अधिकार नहीं कि अमुक व्यक्ति को किस लिए अमुक उपाधि मिली। सम्राट् भी नियमबद्ध हैं। वे भी उपाधि- दान के मामले में दखल नहीं दे सकते। वहाँ का कानून ही ऐसा है।

उपाधियों के क्रय-विक्रय के कारण अन्याय भी बहुत होता है। प्रायः ऐसा हुआ है कि उपयुक्त पात्रों को उपयुक्त उपाधि नहीं दी गई। इस कारण उन बेचारों को बहुत कुछ मन- स्ताप हुआ।

विलायत में अब इस प्रथा के विरुद्ध लोगों ने ज़ोर से

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