पृष्ठ:संकलन.djvu/१५१

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धीरे-धीरे नेटाल में भी यही हवा चली। वहाँ भी १८९४ में, हिन्दुस्तानियों का हित-विरोध आरम्भ हो गया। पहले केवल हिन्दुस्तानी मज़दूर ही अफ़रीक़ा जाते थे। जब यहाँ से व्यापारी और व्यवसायी लोग भी वहाँ जाने लगे, तब वहाँ के रहने- वालों को यह बात असह्य सी हो गई। उन्होंने काले और गोरे में भेद रखना चाहा। इस विषय का एक कानून वे बनाने लगे। वह यदि बन जाता तो हिन्दुस्तानियों का नेटाल जाना एक दम ही बन्द हो जाता। पर प्रसिद्ध राजनैतिक मिस्टर चेम्बरलेन के उद्योग से वह क़ानून न बन सका। उसके बदले एक ऐसा क़ानून बना जिसमें शिक्षा-विषयक एक शर्त रक्खी गई। शर्त यह थी कि जिस भारतवासी की शिक्षा की इयत्ता अमुक हो, वही वहाँ जा सके। नेटाल में यह कानून १८९७ ईसवी में "पास" हुआ। बस, तभी से नटाल में हिन्दुस्ता- नियों के दुःखों का आरम्भ हुआ -- तभी से हिन्दुस्तानियों के सत्वों पर आघात आरम्भ हुआ। उधर ट्रान्सवाल में तो उनकी पहले ही से दुर्गति हो रही थी।

ट्रान्सवाल में ब्रोअरों के साथ जब ब्रिटिश गवर्नमेंट की लड़ाई छिड़ी, तब यह आशा हुई कि सरकार के विजयी होने पर हिन्दुस्तानियों का दुःख दूर हो जायगा। पर यह आशा व्यर्थ हो गई। तब से उनके दुःख-कष्ट और भी बढ़ गये।

बोअरों के राज्य में नाम रजिस्टर कराने और ४५ रुपया वार्षिक कर देने का कोई क़ानून न था। पर, उनका राज्य जाने

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