पृष्ठ:संकलन.djvu/१८

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था, और वार्षिक कर भी देना पड़ता था। १८७५ ईसवी में जापान ने दबाव डाल कर कोरिया के साथ एक सन्धि की। उसके अनुसार जापान को कई अधिकार मिले। उसका वहाँ प्रवेश हो गया, और धीरे धीरे महत्त्व बढ़ा। जापान का एक अधिकारी "रेसिडेंट" की तरह, वहाँ रहने लगा। जापान के जहाज़ कोरिया के बन्दरों में आने जाने लगे, जापानी व्यापारी भी वहाँ अधिकता से व्यापार करने लगे।

कोरियावाले अपने नरेश को देवता समझते हैं, देवता ही के सदृश वे उसको पूज्य मानते हैं। परन्तु राजा का वह नाम, जो उसे चीन के राजराजेश्वर से, सिंहासन पर बैठने के वक्त, मिलता है, मुँह से निकालना पाप है। राजा के शरीर को लोहे के शस्त्र से स्पर्श करना सबसे भारी अपराध है, उसका प्रति- शोध केवल प्राण-दण्ड है। लोहे का स्पर्श होना बहुत ही बुरा समझा जाता है। १८०० ईसवी में टेंग-सांग-ताप-बोंग नाम का राजा एक फोड़े से पीड़ित होकर मर गया, परन्तु उसको चीरने के लिए लोहे के शस्त्र का स्पर्श उसने स्वीकार नहीं किया। सियूल में घुड़सवार को यदि राजप्रासाद के पास से निकलना पड़े तो उसे घोड़े से उतरना पड़ता है। यदि कोई राजसभा में पैर रक्खे, और राजदर्शन करना चाहे, तो सिंहा- सन के सामने, हाथ-पैर लम्बे करके, पृथ्वी पर गिर कर, उसे दण्ड-प्रणाम करना पड़ता है।

कोरिया के वर्तमान नरेश का पवित्र नाम "ह्वनी ई" है।

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