सम्बन्धी अनेक भूलें हुई होंगी। अतएव हमको उचित था कि
हम ऐसे कठिन काम में हाथ न डालते। पर जिन बातों का
विचार इस पुस्तक में है, उनके जानने की इस समय बड़ी
आवश्यकता है। अतएव मिल साहब के विचारों के अनुसार
जब तक कोई अनुवाद सर्वथा निर्दोष न प्रकाशित हो, तब
तक इसका जितना भाग निर्दोष या पढ़ने के लायक़ हो, उतने
ही से पढ़नेवाले स्वाधीनता के सिद्धान्तों और लाभों से
जानकारी प्राप्त करें।
यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान
बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न
समझना चाहिए। दस पाँच किस्से, कहानियाँ, उपन्यास या
काव्य आदि पढ़ने लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कह-
लाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों ही का नाम
साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढ़ने-लिखने में
लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अँग-
रेज़ी जानते हैं, अच्छी तनख्व़ाह पाते हैं और अच्छी जगहों
पर काम करते हैं, वे हिन्दी के मुख्य मुख्य ग्रन्थों और अख़-
बारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य यह है कि अपनी इस
अनभिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते। हाँ, लज्जित वे इस
बात पर ज़रूर होते हैं, यदि समय का सत्यानाश करनेवाले
अपने मित्र-मण्डल में बैठकर वे यह न बतला सकें कि अमुक
न्शी साहब, या अमुक मिरज़ा साहब, या अमुक पण्डित (!)
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