पृष्ठ:संकलन.djvu/४८

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के अनुवाद में हिन्दी, उर्दू, फारसी और संस्कृत इत्यादि के शब्द -- जहाँ पर हमें जैसी ज़रूरत जान पड़ी है -- लिखे हैं। मतलब को ठीक ठीक समझाने के लिए कहीं कहीं पर हमने एक ही बात को दो दो तीन तीन तरह से लिखा है। कहीं कहीं पर एक ही अर्थ के बोधक अनेक शब्द हमने रक्खे हैं। कहीं मूल के भाव को हमने बढ़ा दिया है और कहीं पर कम कर दिया है। यदि पुस्तक उपयोगी समझी गई और यदि लोगों ने इसे पढ़ने की कृपा की (जिसकी हमें बहुत कम आशा है) तो इसकी भाषा ठीक करने में देर न लगेगी। इस पुस्तक का विषय इतना कठिन है कि कहीं कहीं पर इच्छा न रहते भी, विवश होकर, हमें संस्कृत के क्लिष्ट शब्द लिखने पड़े हैं, क्योंकि उनसे सरल शब्द हमें मिले ही नहीं।

जून १९०४ में जब हम झाँसी से कानपुर आये, तब हमने, आजकल के समय के अनुकूल, कुछ उपयोगी पुस्तकें लिखने का विचार किया। हमारा इरादा पहले और एक पुस्तक के लिखने का था। परन्तु बीच में एक ऐसी घटना हो गई जिससे हमें उस इरादे को रहित करके इस पुस्तक को लिखना पड़ा। ७ जनवरी को आरम्भ करके १३ जून को हमने इसे समाप्त किया। बीच में, कई बार, अनिवार्य कारणों से, अनुवाद का काम हमें बन्द भी रखना पड़ा। किसी सार्वजनिक समाज की सार्वजनिक बातों की यदि समालोचना होती है तो वह समा- लोचना उसे अक्सर अच्छी नहीं लगती। इससे उसे रोकने

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