पृष्ठ:संकलन.djvu/५१

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को सुनकर वे इस बात का फ़ैसला करते हैं कि निन्दा व्यर्थ हुई है या अव्यर्थ।

हम कहते हैं कि जब तक कोई बात प्रकाशित न होगी, तब तक उसकी व्यर्थता या अव्यर्थता साबित किस तरह होगी? क्या निन्द्द व्यक्ति को उसकी निन्दा सुना देने ही से काम निकल सकता है ? हरगिज़ नहीं। क्योंकि सम्भव है, वह अपनी निन्दा को स्तुति समझे; और यदि निन्दा को वह निन्दा मान भी ले तो उसे दण्ड कौन देगा? जिन लोगों के काम-काज का सर्व-साधारण से सम्बन्ध है, उनकी निन्दा सुनकर सब लोग जब तक उनका धिक्कार नहीं करते, तब तक उनको धिक्कार-रूप उचित दण्ड नहीं मिलता। जो लोग इन दलीलों को नहीं मानते, वे शायद अख़बारवालों से किसी दिन यह कहने लगें कि तुमको जिसकी निन्दा करना हो या जिस पर दोष लगाना हो, उसे अख़बार में प्रकाशित न करके चुपचाप उसे लिख भेजो। परन्तु जिनकी बुद्धि ठिकाने है -- जो पागल नहीं हैं -- वे कभी ऐसा न कहेंगे।

कल्पना कीजिए कि किसी की राय था, समालोचना को बहुत आदमियों ने मिल कर झूठ ठहराया; उन्होंने निश्चय किया कि अमुक आदमी ने अमुक सभा, समाज, संस्था या व्यक्ति की व्यर्थ निन्दा की; तो क्या इतने से ही उनका निश्चय निर्भ्रान्त सिद्ध हो गया ? साक्रेटिस पर व्यर्थ निन्दा करने का दोष लगाया गया। इसलिए उसे अपनी जान से भी हाथ धोना

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