पड़ा। परन्तु इस समय सारी दुनिया इस अविचार के लिए
अफ़सोस कर रही है, और साक्रेटिस के सिद्धान्तों की शत-
मुख से प्रशंसा हो रही है। क्राइस्ट के उपदेशों को निन्द्य समझ
कर यहूदियों ने उसे सूली पर चढ़ा दिया। फिर क्यों आधी
दुनिया इस निन्दक के चलाये हुए धर्म को मानती है ? बौद्धों
ने शङ्कराचार्य को क्या अपने मत का व्यर्थ निन्दक नहीं समझा
था ? फिर, बतलाइए यह सारा हिन्दुस्तान क्यों उनको शङ्कर
का अवतार मानता है ? जब सैकड़ों वर्ष वाद-विवाद होने पर
भी निन्दा की यथार्थता नहीं साबित की जा सकती, तब किसी
बात को पहले ही से कह देना कि यह हमारी व्यर्थ निन्दा है, अत-
एव इसे मत प्रकाशित करो, कितनी बड़ी धृष्टता का काम है ?
निन्दा-प्रतिबन्धक मत के अनुयायी ही इस धृष्टता -- इस अवि-
चार का परिमाण निश्चित करने की कृपा करें।
जिन लोगों का यह ख़याल है कि "व्यर्थ निन्दा" के प्रका-
शन को रोकना अनुचित नहीं, वे सदय-हृदय होकर यदि मिल
साहब की दलीलों को सुनेंगे और अपनी सर्वज्ञता को ज़रा
देर के लिए अलग रख देंगे तो उनको यह बात अच्छी तरह
मालूम हो जायगी कि वे कितनी समझ रखते हैं। निन्दा-प्रति-
बन्धक मत के जो पक्षपाती मिल साहब की मूल पुस्तक को
अँगरेज़ी में पढ़ने के बाद "व्यर्थ निन्दा" रोकने की चेष्टा करते
हैं, उनके अज्ञान, हठ और दुराग्रह की सीमा और भी अधिक
दूर-गामिनी है। क्योंकि जब मिल के सिद्धान्तों का खण्डन बड़े
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