पृष्ठ:संकलन.djvu/५३

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बड़े तत्त्व-दर्शी विद्वानों से भी अच्छी तरह नहीं हो सकता, तब औरों की क्या गिनती है ? परन्तु यदि उन्होंने मूल पुस्तक को नहीं पढ़ा तो अब तो वे कृपा-पूर्वक इस अनुवाद को पढ़ें। इससे उनकी समझ में यह बात आ जायगी कि अपनी निन्दा व्यर्थ हो चाहे अव्यर्थ -- रोकने की चेष्टा करना मानों इस बात का सबूत देना है कि वह निन्दा झुठ नहीं, बिलकुल सच है। व्यर्थ निन्दा के असर को दूर करने का एक मात्र उपाय यह है कि जब निन्दा प्रकाशित हो ले, तब उसका स-प्रमाण खण्डन किया जाय और दोनों पक्षों के वक्तव्य का फ़ैसला सर्व-साधा- रण की राय पर छोड़ दिया जाय। ऐसे विषयों में जन-समुदाय ही जज का काम कर सकता है। उसी की राय मान्य हो सकती है। जो इस उपाय का अवलम्बन नहीं करते, जो ऐसी बातों को जन-समूह की राय पर नहीं छोड़ देते, जो अपने मुक़- दमे के आप ही जज बनना चाहते हैं, उनके तुच्छ, हेय और उपेक्ष्य प्रलापों पर समझदार आदमी कभी ध्यान नहीं देते। ऐसे आदमी तब होश में आते हैं जब अपने अहंमानी स्वभाव के कारण अपना सर्वनाश कर लेते हैं। ईश्वर इस तरह के आद- मियों से समाज की रक्षा करे !

[अगस्त १९०५.
 

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