पृष्ठ:संकलन.djvu/७१

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करती है। उस समय उसके मुँह की जो आकृति होती है, उसे बच्चा आइने में ध्यान से देखता है और उसकी नक़ल करता है। नकल करने में यदि उससे भूल होती है तो अध्यापिका उसे दुरुस्त करती जाती है और आवश्यकता होने पर यन्त्र को जीभ में लगाती है। इस तरह क्रम क्रम से "क" क्लास के सब बच्चों को शिक्षा दी जाती है। जब वे. "क" उच्चारण में दक्ष हो जाते हैं, तब "ख" क्लास में चढ़ाये जाते हैं। इसी तरह उनकी तरक्की होती जाती है और वर्णों और अंकों का उच्चारण सिख- लाया जाता है।

गूँगे-बहरों के स्कूल में जाने से, सुनते हैं, बड़ा आनन्द आता है। मालूम होता है, कोई तमाशा हो रहा है। अध्यापिका बड़े धीर-गम्भीर भाव से बातें करती है और बच्चे उसकी बातें समझते हैं; और जो कुछ वह कहती है, वही करते हैं। जहाँ जरूरत होती है, वे बोलते भी जाते हैं। उनकी आवाज़ में सिर्फ इतना ही भेद होता है कि वह कुछ फैली सी होती है। इन स्कूलों के शिक्षा-क्रम को देखकर देखनेवालों को बड़ा आश्चर्य होता है।

सैंकड़ों तरह के खिलौने इन स्कूलों में जमा रहते हैं। जिन चीजों और जिन जानवरों को हम लोग रोज देखते हैं, खिलौनों के रूप में वे स्कूल में रक्खे रहते हैं। उन से बच्चों को शिक्षा दी जाती है। जब वे वर्णमाला सीख चुकते हैं, तब वस्तु- परिज्ञान कराया जाता है। अध्यापिका कुत्ते के आकार का खिलौना हाथ में लेती है और मुँह से कहती है "कु-त्ता।"

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