पृष्ठ:संकलन.djvu/७७

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अतएव वह धन किस काम का जो लोभ को बढ़ाता जाय ? भूख लगने पर भोजन कर लेने से तृप्ति हो जाती है। प्यास लगने पर पानी पी लेने से तृप्ति हो जाती है। परन्तु धन से तृप्ति नहीं होती। उसे पाकर और भी अधिक लोभ बढ़ता है। इसी लिए धनी होना एक प्रकार का रोग है। रात को जाड़े से बचने के लिए एक लिहाफ बस होता है। यदि किसी के ऊपर आठ दस लिहाफ डाल दिये जायँ तो उसे बोझ मालूम होने लगेगा और उल्टा कष्ट होगा। परन्तु धन की वृद्धि से कष्ट नहीं मालूम होता। इसी लिए धनाढ्यता भी एक प्रकार की बीमारी है। जिसे भस्मक रोग हो जाता है, वह खाता ही चला जाता है। उसे कभी तृप्ति नहीं होती। जिसे धनाध्यता रोग हो जाता है, वह भी कभी तृप्ति नहीं होता। तृप्ति का न होना, अर्थात् आ- वश्यकताओं का बढ़ जाना ही, दुःख का कारण है। और जहाँ दुःख है, वहाँ सुख रही नहीं सकता। उन दोनों में परस्पर वैर है। अतएव उसी को धनी समझना चाहिए जिसकी आवश्यक- तायें कम हैं; क्योंकि वह थोड़े ही में तृप्त हो जाता है। तृप्ति ही सुख है; और लोभ ही दुःख है।

सन्तोष नीरोगता का लक्षण है; लोभ बीमारी का लक्षण है। जो मनुष्य खाते खाते सन्तुष्ट नहीं होता, उसे अधिक खिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। ऐसे मनुष्यों को अधिक खिलाने की अपेक्षा उनके खाये हुए पदार्थों को, वमन कराके बाहर निकाल-

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