पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१०४

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( ५४ ) (दो०] मनसा वाचा कर्मणा, हम से छाँडो नेहु । राजा को विपदा परी, तुम तिनकी सुधि लेहु ।। ११ ।। सीता प्रति राम का उपदेश [पद्धटिका छद] उठि रामचद्र लक्ष्मण समेत । तब गये जनकतनया-निकेत ॥ राम-सुनु राजपुत्रिके एक बात । हम बन पठये हैं नृपति तात ॥ १२ ॥ तुम जननि-सेव कहँ रहहु वाम । कै जाहु आजुही जनक-धाम ।। सुनु चद्रवदनि गजगमनि ऐनि । २।। मन रुचै सो कीजै जलजनैनि ।। १३ ।। [नाराच छद] सीता-न हौं रहौं, न जाहुँ जू विदेह-धाम को अबै । ___ कहा जो बात मातु पै सो आजु मैं सुनी सबै ॥ लगे छुधाहि माँ भली, विपत्ति माँझ नारियै । पियास त्रास नीर, वीर युद्ध मैं सम्हारियै ॥ १४ ॥ [सुप्रिया छद] लक्ष्मण-वन महँ विकट विविध दुख सुनिए । गिरि-गहवर मग अगमहि गुनिए । कहुँ अहि हरि, कहुँ निशिचर चरहीं। "कहें दव दहन दुसह दुख दहही ॥ १५ ॥