पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१२२

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( ७२ ) [चतुष्पदी छद] शिर श्वेत विराजै कीरति राजे जनु केशव तप-बल की। तनु वलित पलित जनु सकल वासना निकर गई थल थल की ॥ काँपति शुभ ग्रीवा सब अँग सींवा देखत चित्त भुलाही । जनु अपने मन प्रति यह उपदेशति, 'या जग मे कछु नाहीं ||५|| [प्रमिताक्षरा छौंद] हरवाइ' जाय सिय पाइँ परी । ऋषि-नारि लूँघि सिर गोद धरी ॥ बहु अ गराग अग अग रये । बहु भाँति ताहि उपदेश दये ॥६॥ [स्रग्विनी छौंद] राम आगे चले, मध्य सीता चली। बंधु पाछे भये, सोभ सोभै भली ॥ देखि देही सबै कोटिधा के भनौ ।' 'जीव-जीवेस के बीच माया मनौ ।।७।। विराध-वध [मालती छ द] विपिन विराध बलिष्ठ देखियो । नृप-तनया भयभीत लेखियो । तब रघुनाथ बाण कै हयो । निज निर्वाण-पंथ को ठयो ॥८॥ (१) हरवाइ = शीघ्रता से ।