पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१२४

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(७४ ) [ पृथ्वी छद श्रीराम-अगस्त्य ऋषिराज जू वचन एक मेरो सुनौ । प्रशस्त सब भाँति भूतल सुदेश जी मैं गुनौ ।। सनीर तरु खंड मंडित समृद्ध शोभा धरै। तहाँ हम निवास की विमल पर्णशाला करें ॥१४॥ अगस्त्य- [पद्मावती छद्र ] यद्यपि जग-कर्ता-पालक हर्ता परिपूरण वेदन गाये। अति तदपि कृपा करि मानुष वपु धरि थल पूछन हमसौं आये ॥ सुनि सुर-वर-नायक राक्षस-घायक रचहु मुनिजन यश लीजै । शुभ गोदावरि-तट विशद पचवट पर्णकुटी तहँ प्रभु कीजै ॥१५॥ [दो०] केशव कहे अगस्त्य के पचवटी के तीर । पर्णकुटी पावन करी, रामचद्र रणधीर ॥१६॥ पंचवटी-वन-वणेन [-त्रिभंगी-छद] फल फूलन पूरे, तरुवर रूरे, कोकिल-कुल कलरव बोले । अति मत्त मयूरी पियरस पूरी, वन वन प्रति नाचति डोले । सारी शुक पंडित, गुणगण-मडित, भावनि मैं अरथ बखाने । देखे रघुनायक, सीय सहायक, मदन सरति मधु सब जानै ।।१७।। लक्ष्मण- [सवैया] सब जाति फटी दुख की दुपटी, कपटी न रहै जहँ एक घटी। निघटी रुचि मीचघटीहूँ घटी, जग जीव यतीन की छूटी तटी ॥ । (१) तटी = समाधि ।।