पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१२६

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( ७६ ) अलि कमल सौगध लीला मनाहारिणी। . बहु नयन देवेश शोभा मनो धारिणी ॥२३॥ । [देोधक छौंद] रीति मनो अविवेक की थापी । -साधुन की गति पावत पापी । । कजज की मति सी बडभागी। श्री हरिमदिर सौं अनुरागी ॥२४॥ - [अमृतगति छंद ] निपट पतिव्रत धरणी । जग जन के दुख हरणी ॥ वा निगम सदा गति सुनिए । अगति महापति गुनिए ॥२५॥ [दो०] विषमय ३ यह गोदावरी, अमृतन को फल देति। केशव जीवनहार) को, दुख अशेष हरि लेति ॥२६॥ वन-विलास-वर्णन [त्रिभगी छंद ], जब जब धरि वीना प्रगद प्रवीना, बहु गुण लीना सुख सीता । । पिय जियहि रिझावै, दुनि भजावै, विविध बजावै गुण गीता। तजि मति ससारी विपिन विहारी, दुख सुखकारी घिरि आवै । (१) कंजज = ब्रह्मा । (२) हरिमदिर = समुद्र, विष्णुस्थान । (३) विषमय = जल ( विष ) से परिपूर्ण ।