पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६२

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[हरिगीत छद]
कछु जननि दे परतीति जासो रामचंद्रहि आवई।
सुभ सीस की मनि दई, यह कहि, 'सुयस तव जग गावई॥
सब काल ह्वै हौ अमर अरु तुम समर जयपद पाइहौ।
सुत आजु ते रघुनाथ के तुम परम भक्त कहाइहौ'॥५५॥
कर जोरि पग परि तोरि उपवन कोरि किंकर मारियो।
पुनि जबुमाली मत्रिसुत अरु पच मत्रि सँहारियो॥
रन मारि अच्छकुमार बहु बिधि इद्रजित सों युद्ध कै।
अति ब्रह्मसस्त्र प्रमान मानि सो वस्य भो मन सुद्ध कै॥५६॥
हनुमान्-रावण-संवाद
[विजय छद]
'रे कपि कौन तु अच्छ को घातक?' 'दूत बली रघुन दन जू को।'
'को रघुनंदन रे?' 'त्रिसिरा-खरदूषन-दूषन भूषन भू को॥'
'सागर कैसे तर्यो?' 'जैसे गोपद', 'काज कहा?' 'सियचोरहि देखौं।'
'कैसे बँधायो?' 'जो सुदरि तेरी छुई दृग सोवत, पातक लेखौ'॥५७॥
[चामर छद]
रावण--कोरि कोरि यातनानि फोरि फारि मारिए।
काटि काटि फारि मासु बाँटि बॉटि डारिए॥
खाल खैचि खैचि हाड़ भूँजि भूँजि खाहु रे।
पौरि टॉगि रुड मुड लै उडाइ जाहु रे॥५८॥
विभीषण--दूत मारिए न राजराज, छोडि दीजई।
मंत्रि मित्र पूँछि कै सो और दुड कीजई॥