पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१७६

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[भुजगप्रयात छंद]
रावण--महामीचु दासी सदा पाइँ धोवै।
प्रतीहार हृै कै कृपा सूर जोवै॥
क्षपानाथ लीन्हें रहै छत्र जाको।
करैगो कहा सत्रु सुग्रीव ताको॥३२॥
सका मेघमाला, सिखी पाककारी।
करै कोतवाली महादडधारी॥
पढ़ै वेद ब्रह्मा सदा द्वार जाके।
कहा बापुरो सत्रु सुग्रीव ताके॥३३॥

[विजय छौंद]

अंगद--पेट चढ़यो, पलना पलिका चढि
पालकि हू चढि मोह मढयो रे।
चौक चढ़यो, चित्रसारी चढयो,
गजबाजि चढयो, गढ़ गर्व चढ़यो रे॥
व्योम विमान चढयो ई रह्यो
कहि केसव सो कबहूँ न पढ़यो रे।
चेतत नाहीं रह्यो चढ़ि चित्त सों,
चाहत मूढ चिताहू चढ़यो रे॥३४॥

[भुजगप्रयात छंद]

रावण--निकारयो जो भैया, लियो राज जाको।
दियो काढिकै जू कहा त्रास ताको॥



(१) सका = सक्का, पानी भरनेवाला। (२) सिखी = अग्नि।