पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१८३

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रावण--चारि भॉति नृपता तुम कहियो।
चारि मत्रि मत मैं मन गहियो॥
राम मारि सुर एक न बचिहैं।
इद्रलोक सो वासहिं रचिहैं॥६७॥
[प्रमिताक्षरा छंद]
उठि कै प्रहस्त सजि सैन चले।
बहु भॉति जाइ कपि-पुज दले॥
तब दौरि नील उठि मुष्टि हन्यो।
असुहीन गिरयो भुव मुड सन्यो॥६८॥
[वशस्थ छद]
महाबली जूझत ही प्रहस्त को।
चढ़यो तहीं रावण मीडि हस्त को॥
अनेक भेरी बहु दुदुभी बजै।
गयद क्रोधांध जहाँ तहाँ गर्जैं॥६९॥
[सवैया]
देखि विभीषन को रन, रावण सक्ति गही कर रोस रई है।
छूटत ही हनुमत सौ बीचहिं पूछ लपेटि के डारि दई है॥
दूसरी ब्रह्म की सक्ति अमोघ चलावतही 'हाइ' 'हाइ' भई है।
राख्यो भले सरनागत लक्ष्मन फूलि कै फूल सी ओडि लई है॥७०॥
[दोधक छद]
यद्यपि है अति निर्गुनताई। मानुप देह धरे रघुराई॥
लक्ष्मण राम जहीं अवलोक्यो। नैनन ते न रह्यो जल रोक्यो॥७१॥