पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९५

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वायुपुत्र, बालिपुत्र, जामवत धाइयो।
लक में निसक अंक लकनाथ पाइयो॥१२२॥
मत्त दति-पक्ति वाजिराजि छोरिकै दयी।
भाँति भॉति पक्षि-राजि भाजि भाजिकै गयी।
आसने बिछावने वितान तान तूरियो।
यत्र तत्र छत्र चारु चौर चारु चूरियो॥१२३॥
[भुजगप्रयात छद]
भगी देखिकै सकि लकेस बाला।
दुरी दौरि मदोदरी चित्रसाला॥
तहाँ दौरिगो बालि को पूत फूल्यो।
सबै चित्र की पुत्रिका देखि भूल्यो॥१२४॥
गहै दौरि जाको तजै ताकि ताको।
तजै जा दिशा को भजै बाम ताको॥
भली कै निहारी सबै चित्रसारी।
लहै सुदरी क्यौ दरी को बिहारी॥१२५॥
तजै दृष्टि कों चित्र की सृष्टि धन्या।
हँसी एक ताको तहीं देव-कन्या।
तहीं हासही देव-कन्या दिखाई।
गही संकि के लकरानी बताई॥१२६॥
सुआनी गहे केस लकेस-रानी।
तमश्री मनौ सूर सोभानि सानी॥


(१) अक = राज-चिह्नादि।