पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९७

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दीह दुंदुभी अपार भाँति भाँति बाजहीं।
युद्धभूमि मध्य क्रुद्ध मत्त दंनि राजहीं॥१३२॥
[चंचरी चंद]
इंद्र श्रीरघुनाथ को रयहीन भूतल देखि कै।
वेगि सारथि सौ कहेउ रथ जाहि लै सुविशेषि कै॥
तून अच्छ्य वाण स्वच्छ अभेद लै तनत्रान को।
आइयो रणभूमि मैं करि अप्रमेय प्रनाम को॥१३॥
कोटि भाँतिन पौन ते मन ते नहा लघुता लसै।
बैठिकै ध्वज अग्र श्रीहनुमंत अ तक ज्यौ कैसे॥
रामचंद्र प्रदच्छिना करि दच्छ है जवहीं चढ़े।
पुष्प वर्षि वजाय दुंदुभि देवता बहुधा बड़े॥१३४॥
राम कौ रथ मध्य देखत क्रोध रावन के बढ्या।
बीस गहुन की सरावलि व्योम मृतल सो मढ्यो॥
सैल हैृ सिकता गये सब दृष्टि के वल संहरे।
ऋच्छ बानर भेदि तच्चन लच्छवा छतना करे॥१३५॥
[सुंदरी छंद]
वानन साथ विधे सब वानर।
जाय परे मलयाचल की घर॥
सूरजमंडल में एक रोवत।
एक अकासनही मुख धोवत॥१३६॥