पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२००

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शैल-शृंगावली छोडि मानौ उडी
एक ही बेर के हस-बसावली॥१४४॥

[त्रिभगी छद]
लछमन शुभ-लच्छन बुद्धि-बिचच्छन रावन सौ रिस छोड दयी।
बहु बाननि छडै जे सिर खडै ते फिर मंडै सोभ नयी।
यद्यपि रनपडित, गुन-गन मडित, रिपु-बल खडित, भूल रहे।
तजि मन बच कायक, सूर सहायक, रघुनायक सों वचन कहे॥१४५॥
ठाढ़ो रण राजत, केहुँ न भाजत, तन मन लाजत, सब लायक।
सुनि श्रीरघुनंदन, मुनिजन-वंदन दुष्ट-निकदन, सुखदायक॥
अब टरै न टार थो, मरै न मार् यो, है। हठि हार् यो धरि सायक।
रावन नहि मारत देव पुकारत हैृ अति आरत जगनायक॥१४६॥

रावण-वध
छप्पै
राम--जेहि सर मधु मद मरदि महासुर मर्दन कीन्हेउ।
मारेउ कर्कश नर्क, शंख हति शख जो लीन्हेउ॥
निष्कटक सुर-कटक कर् यो कैटभ-बपु खंड्यो।
खर दूषन त्रिसिरा कबध तरु खंड विहंड्यो।
कुभकरन जेहि सहर्यो पल न प्रतिज्ञा ते टरौं।
तेहि बान प्रान दसकठ के कंठ दसौ खडित करौं॥१
[दो०] रघुपति पठयो आसुही, असुहर बुद्धिनिधान।
दससिर दसहूँ दिसन को, बलि दै आयो बान॥१४८