पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१७

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यह जग चक्काब्यूह किय, कज्जल-कलित अगाधु।
नामहँ पैठि जो नीकसै, अकलकित सो साधु॥४७॥

[दोधक छद]

देखतहूँ एक काल छियेहूँ।
बात कहे सुनै भोग कियेहूँ॥
सोवत जागत नेक न छोभै।
सो समता सबही महँ सोभै॥४८॥
जी अभिलाष न काहु की आवै।
आये गये सुख दुःख न पावै॥
लै परमानंद सों मन लावै।
सो सब मांझ सँतोष कहावै॥४९॥
आयौ कहाँ, अब है। कहि को है॥
ज्यौ अपनो पद पाऊँ, सोटोहौ॥
बधु अबधु हिये महँ जाने।
ता कहँ लोग बिचार बखानै॥५०॥

[पद्धटिका छद]

जग जिनको मन तव चरण लीन।
तन तिनको मृत्यु न करति छीन।
तेहि छनही छन दुख छीन होत।
जिय करत अमित आनँद उदोत॥५१॥
जो चाहै जीवन अति अन त।
सो साधै प्राणायाम मत॥