पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२२

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कै विक्रम युत कीरति प्रवीन।
कै श्री नारायन सोभलीन॥
कै अति सोभित स्वाहा सनाथ।
कै सुंदरता शृगार साथ॥७९॥
[सुंदरी छ द]
केसव शोभन छत्र विराजत।
जा कहँ देखि सुधाधर लाजत॥
शोभित मोतिन के मनि के गनु।
लोकन के जनु लागि रहे मनु॥८०॥
[दो०]शीतलता शुभता सबै, सुदरता के साथ।
अपनी रवि की अ शु लै, सेवत जनु निशिनाथ॥८१॥
[सु दरी छद]
ताहि लिये रविपुत्र सदारत।
चमर विभीषन अंगद ढारत॥
कीरति लै जग की जनु वारत।
चंद्रक' चदन चद सदारत॥८२॥
लक्ष्मण दर्पण को देखरावत।
पाननि लक्ष्मण बधु खवावत॥
भर्थ लै लै नरदेव सदारत।
देव अदेवनि पायन पारत॥८३॥


(१) चद्रक = कपूर। (२) सदारत = सदा + आर्त = नित्य दुखी।