पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२३

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[दो०] जामवंत हनुमत नल, नील मरातिब साथ।
छरी छबीली शोभिजै, दिगपालन के हाथ॥८४॥
रूप बहिक्रम सुरभि सम, वचन रचन बहु भेव।
सभा मध्य पहिचानिए, नर नरदेव न देव॥८५॥
आयी जब अभिषेक की, घटिका केसवदास।
बाजे एकहि बार बहु, दुदुभि दीह अकास॥८६॥
[झूलना छद]
तब लोकनाथ विलोकि कै रघुनाथ कों निज हाथ।
सविशेष सों अभिषेक की पुनि उच्चरी शुभ गाथ॥
ऋषिराज इष्ट वसिष्ठ सो मिलि गाधिन दन आइ।
पुनि बालमीकि बियास आदि जिते हुते मुनिराइ॥८७॥
रघुनाथ शभु स्वयभु को निज भक्ति दी सुख पाइ।
सुरलोक कों सुरराज को किय दीह निर्भय राइ॥
विधि सौ ऋषीशन सौ विनय करि पूजियौ परि पाइ।
बहुधा दई तपवृक्ष की सब सिद्धि सिद्ध सुभाइ॥८८॥
[दो०] दीन्हों मुकुट विभीषणै, अपनो अपने हाथ।
कठमाल सुग्रीव कों, दीन्ही श्रीरघुनाथ॥८९॥
[चचरी छद]
माल श्रीरघुनाथ के उर शुभ्र सीतहि सो दयी।
अरपियो हनुमत को तिन दृष्टि के करुनामयी॥


(१) मरातिव = माहीमरातिब, शाहशाही झ डा।(२) स्वयभू = ब्रह्मा।