पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३२

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[रूपमाला छंद]
शत्रुघ्न--स्वप्नहू नहिं छोडिए तिय गुर्ब्बिणी पल दोइ।
छोडियो तब शुद्ध सीतहिं गर्भमोचन होइ॥
पुत्र होइ कि पुत्रिका यह बात जानि न जाइ।
लोक लोकन मै अलोक न लीजिए रघुराइ॥१३३॥
[दो०] रामचंद्र जगचंद्र तुम, फल दल फूल समेत।
सीता या बन पद्मिनी, न्यायन ही दुख देत॥१३४॥
घर घर प्रति सब जग सुखी, राम तुम्हारे राज।
अपनेहि घर कत करत हौ, शोक अशोक समाज॥१३५॥
[तोटक छंद]
राम--तुम बालक हौ बहुधा सबमैं।
प्रति उत्तर देहु न फेरि हमैं॥
जो कहैं हम बात सो जाइ करौ।
मन मध्य न और विचार धरौ॥१३६॥
[दो०] और होइ तौ जानिजै', प्रभु सों कहा बसाइ।
यह विचारि कै शत्रुहा, भरत उठे अकुलाइ॥१३७॥
[दोवक छद]
राम--सीतहि लै अब सत्वर' जैए।
राखि महावन मे पुनि ऐए।


(१) जानिजै = समझ लेते, लड़कर होश ठिकाने कर देते। (२) सत्वर = शीघ्र।