पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३६

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पूजि परि पायँ मठु ताहि तबहीं दयो।
मत्त गजराज चढ़ि विप्र मठ को गयो॥१५७॥
[सुदरी छद]
बूझत लोग सभा महँ श्वानहि।
जानत नाहिन या परिमानहिं॥
विप्रहि तै जो दई पदवी वह।
है यह निग्रह कैधौं अनुग्रह॥१५८॥
श्वान-कथित मठपति-निंदा
[दोधक छद]
श्वान--एक दिना यक पाहुन आयो।
भोजन सो बहुभाँति बनायो॥
ताहि परोसन को पितु मेरो।
बोलि लियो हित हो सब केरो॥१५९॥
ताहि तहाँ बहु भाँति परोसो।
केहूँ कहूँ नख माँह रह्यो सो॥
ताहि परोसि जहीं घर आयो।
रोवत हौ हँसि कठ लगायो॥१६०॥
[चामर छद]
मोहि मातु तप्त दूध भात भोज को दियो।
बात सों सिराइ तात छीर अगुली छियो॥
घ्यो द्रव्यो, भष्यों, गयो अनेक नर्कवान भो।
हौं भ्रम्यो अनेक योनि औध आनिस्वान भो॥१६१॥