पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(१९५)

[ दो०] कुश की टेर सुनी जहाँ, फूलि फिरे शत्रुघ्न।
दीप विलोकि पतंग ज्यों, तदपि भयो बहु विघ्न ॥२०२॥
[ मनोरमा छंद ]
रघुनंदन को अवलोकतहीं कुश।
उर मॉझ हयो शर शुद्ध निरकुश॥
ते गिरे रथ ऊपर लागतहीं शर।
गिरि ऊपर ज्यों गजराज कलेवर ॥२०३॥
[ सुदरी छ द ]
जूझि गिरे जबहीं अरिहा रन।
भाजि गये तबहीं भट के गन॥
काढ़ि लियो जबहीं लव को शर।
कठ लग्यौ तबहीं उठि सोदर ॥२०४॥
[ दो० ] मिले जो कुश लव कुशल सों, वाजि बाँधि तरुमूल।
रणमहि ठाढे शोभिजै, पशुपति गणपति तूल ॥२०५॥
[ रूपमाला छंद ]
यज्ञमडल मैं हुते रघुनाथ जू तेहि काल।
चर्म अ ग कुरंग को शुभ स्वर्ण की सँग बाल॥
आस पास ऋषीश शोभित शूर सोदर साथ।
आइ भग्गुल' लोग वरणे युद्ध की सब गाथ ॥२०६॥


( १ ) भग्गुल = भगेड़।