पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२४९

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कुशै लवै निरकुशै विलोकि बधु राम को ।
उठ्यो रिसाइ कै बली बँध्यो सोलाज दाम को ॥२२१॥
[ मौक्तिकदाम छंद ]
कुश--न हौं मकराक्ष न हौं इद्रजीत ।
विलोकि तुम्हे रण होहुँ न भीत ॥
सदा तुम लक्ष्मण उत्तमगाथ ।
करौ जनि आपनि मातु अनाथ ॥२२२॥
लक्ष्मण--कहौ कुश जो कहि आवति बात ।
विलोकत हौं उपवीतहि गात ॥
इते पर बालवयक्रम जानि ।
हिये करुणा उपजै अति आनि ॥२२३॥
विलोचन लोचत' हैं लखि तोहि ।
तजौ हठ आनि भजौ किन मोहिं ॥
क्षम्यों अपराध अजौं घर जाहु ।
हिये उपजाउ न मातहि दाहु ॥२२४॥
[ दोधक छंद ]
हौ हतिहौं कबहूँ नहिं तोही। तू बरु बाणन बेधहि मोहीं ।
बालक विप्र कहा हनिए जू। लोक अलोकन में गनिए जू ॥२२५॥
कुश--[ हरणी छंद ]
लक्ष्मण हाथ हथ्यार धरौ। यज्ञ वृथा प्रभु को न करौ ।
हौं ह्य कौ कबहूँ न तजौं। पट्ट लिख्यौ सोइ बाँचि लजौं ॥२२६॥


(१) बालवयक्रम = बाल्यावस्था। (२) लोचत = सकुचाते।