पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५३

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यत्र तत्र ध्वजा पताका दीह देहनि भूप ।
टूटि टूटि परे मनौ बहु बात वृक्ष अनूप ।। २४०॥
पुज कु जर सुभ्र स्यंदन सोभिजै सुठि सूर ।
ठेलि ठेलि चले गिरीसनि पेलि सोनित पूर ।।
ग्राहतु ग तुरग कच्छप चारु चर्म विसाल ।
चक्र से रथचक्र पैरत गृद्ध वृद्ध मराल ।। २४१ ।।
केकरे कर बाहु मीन गयद सुड भुजग।
चीर चौर सुदेस केस सिबाल जानि सुरग॥
बालुका बहु भाँति हैं मनिमाल जाल प्रकास ।
पैरि पार भये ते द्वै मुनिबाल केसवदास ॥ २४२ ॥
[दो०] नामबरण लघु वेप लघु, कहत रीझि हनुमत ।
इतो बडो विक्रम किया, जीते युद्ध अनत ॥ २४३ ।।
[तारक छट]
भरत-हनुमंत दुरत नदी अब नाषौ ।
रघुनाथ सहोदर जी अभिलाषौ ।।
तब जो तुम मिधुहि नॉघि गये जू ।
अब नाँघहु काहे न भीत भये जू ॥ २४४ ॥
हनुमान-[दो०] सीतापद सम्मुख हुते, गये सिंधु के पार ।
विमुख भये क्यों जाहुँ तरि,सुनौ भरत यहि बार॥२४५।।
[तारक छ द]
धनु बान लिये मुनिबालक आये।
जनु मन्मथ के युग रूप सुहाये ॥